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बड़ा सवाल: I.N.D.I.A से कौन होगा पीएम पद का चेहरा?

PM MODI

बीते महीने देश के पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव में से तीन हिंदी भाषी प्रदेशों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली बीजेपी की शानदार जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिल रहा है। इस जीत के बाद एक बार फिर से ये धारणा मजबूत हुई है कि चुनावी मैदान में ‘ब्रांड मोदी’ ही पार्टी का तुरुप का इक्का है। वैसे तो भाजपा अपने आपको कार्यकर्ताओं की पार्टी बताती है लेकिन, आज के दौर में अधिकतर मतदाता मोदी के नाम पर ही पार्टी को वोट देते हैं। वहीं राजनीति के जानकार और भाजपा के धुर विरोधी भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि मोदी ही पार्टी के तुरुप का इक्का है। उनके सियासी प्रतिद्वंद्वी भी इस बात को खुले मन से एक्सेप्ट कर रहे हैं कि इस बार की जीत भाजपा या आरएसएस की नहीं, बल्कि मोदी की है।

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पार्टी या पार्टी की विचारधारा पर किसी नेता विशेष के व्यक्तित्व का भारी पड़ना कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से लेकर माकपा में ज्योति बसु और तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी भी ऐसे ही नेता है जिसकी वजह से पार्टी चुनावी मैदान के खुद को मजबूती से खड़ा करती है। वहीं मौजूदा समय में नवीन पटनायक, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे अनेक नेता हैं जिनकी पार्टी का भूत, वर्तमान और भविष्य जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता से सीधा जुड़ा हुआ है, जहां तक भाजपा की बात है तो वहां अटल बिहारी वाजपेयी युग से लेकर मोदी के दौर तक संगठन या सरकार में पार्टी की विचारधारा को ही सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है। यह बात और है कि मोदी के शासनकाल से पहले भाजपा को अपने बल पर कभी भी बहुमत नहीं मिला था। अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए उसे अन्य सहयोगी पार्टियों का मुंह देखना पड़ता था।

2014 के बाद पार्टी अपने बूते सरकार बनाने में सक्षम हुई। इसके बाद ही मोदी के नेतृत्व में पार्टी द्वारा कई ऐसे फैसले लिए गए जो भाजपा के एजेंडे पर लंबे समय से लंबित थे। हालांकि उनके कई निर्णयों की तीखी आलोचना भी हुई, लेकिन उन्होंने किया वही जो उनकी पार्टी की नीतियों के अनुरूप था। अगर ताजा चुनावों में वाकई तीन राज्यों के मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करके सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता सौंपी है, तो यह प्रतिपक्ष के लिए चिंता का विषय होना चाहिए और उन्हें जल्द ही 2024 के चुनाव की तैयारियों में जुटना चाहिए। हालांकि अगले चार-पांच महीनों के भीतर विपक्ष के लिए ‘ब्रांड मोदी’ की काट ढूंढना सबसे बड़ी चुनौती है। कांग्रेस में आज भी इस बात पर संशय है कि क्या राहुल गांधी साझा विपक्ष के सर्वमान्य नेता होंगे।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस को उम्मीद थी कि तीन राज्यों के साथ ही वह तेलंगाना में चुनाव जीतकर अपनी सहयोगी पार्टियों को इस बात पर राजी कर लेगी कि वे राहुल गांधी को विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के चेहरे के रूप में पेश करेंगे लेकिन अब समाजवादी पार्टी और जनता दल-यूनाइटेड ने हार का ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हुए साफ कह दिया है कि सहयोगी पार्टियों की उपेक्षा हुई है। ऐसे में अब ये यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या 2024 के चुनावी समर के लिए विपक्ष बिना किसी नेतृत्व के चुनाव लड़ेगा? उधर भाजपा की कमान तो एक बार फिर मोदी के हाथों में होगी, लेकिन ‘इंडिया’ कुनबे का सिपहसालार कौन होगा? इस पर अभी कुछ भी सामने नहीं आया है।

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