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कानपुर में तीन दशक से कांग्रेस और भाजपा के बीच ही दिखा संघर्ष

कानपुर
  • 1989 में सीपीआई (एम) की सुभाषिनी अली सांसद बनीं

  • 2014 से कानपुर बीजेपी का मजबूत गढ़ बन गया 

कानपुर। औद्योगिक शहर कानपुर का देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान है। जब जेबें मजबूत थीं तो कानपुर का राजनीतिक रुतबा भी काफी ऊंचा था, लेकिन पिछले चार दशकों से कानपुर में सभी क्षेत्रों में गिरावट देखने को मिल रही है। इसका नतीजा ये रहा कि इस जिले का सामाजिक और राजनीतिक रुतबा भी कमजोर हुआ।क्रांतिकारियों की धरती कानपुर लंबे समय से सत्ता की धारा के विपरीत चल रही थी, लेकिन हवा के बदलते रुख से यह शहर वाकिफ हो गया है। कभी वामपंथियों का गढ़ रहे कानपुर में 1991 तक लोकसभा की लड़ाई कांग्रेस और भाजपा तक ही सीमित थी लेकिन सपा और कांग्रेस गठबंधन के चलते इस बार भी इस सीट से कांग्रेस ही चुनाव मैदान में उतर सकती है।

कभी था कानपुर सेंट्रल

1952 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हरिहर नाथ शास्त्री ने कानपुर सेंट्रल सीट जीती थी। इसके बाद हुए दो उपचुनाव में शिवनारायण टंडन और प्रो. राजाराम शास्त्री ने जीत हासिल की थी। 1957 में जब आजाद भारत का दूसरा चुनाव हुआ तो निर्दलीय नेता एस. एम. बनर्जी ने कांग्रेस से ये सीट छीन ली। बनर्जी को कानपुर की जनता का इतना जबरदस्त समर्थन मिला कि वे 20 वर्षों तक लगातार यहां से सांसद रहे। आपातकाल के बाद 1977 में इस सीट से जनता पार्टी के मनोहर लाल को जीत मिली। 1980 में कांग्रेस के टिकट पर आरिफ मोहम्मद खान इस सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। आरिफ़ वर्तमान में केरल के राज्यपाल हैं। 1984 में कांग्रेस के नरेश चंद्र चतुर्वेदी और 1989 में सीपीआई (एम) की सुभाषिनी अली को कानपुर की जनता ने चुना।

मंदिर आंदोलन से आया टर्निंग पॉइंट 

1990 के दशक में इस जिले के राजनीतिक परिदृश्य में एक और टर्निंग पॉइंट आया। यहां की राजनीति में रामन्दिर विवाद का असर दिखा और 1991, 1996 और 1998 में बीजेपी के जगतवीर सिंह द्रोण पर जनता भरोसा जताया और उन्हें दिल्ली भेजा। 1999 में कांग्रेस सांसद श्रीप्रकाश जयसवाल ने एक बार फिर से कानपुर की सीट पर कब्जा किया। इसके बाद श्रीप्रकाश लगातार तीन बार इस सीट से जीते। वे केंद्र में गृह मंत्री और कोयला मंत्री (स्वतंत्र पद) भी बने। 2014 में बीजेपी के टिकट पर मुरली मनोहर जोशी ने यहां से चुनाव लड़ा। उन्होंने श्रीप्रकाश को 220,000 वोटों के अंतर से शिकस्त दी। 2019 में सत्यदेव पचौरी ने श्रीप्रकाश को 155,000 वोटों के अंतर से फिर हरा दिया।

जनता पर बढ़ा कांग्रेस का भरोसा

2004 के चुनाव में कानपुर के पूर्व मेयर  रहे श्रीप्रकाश को 2.11 लाख वोट मिले थे। 2014 में मोदी लहर के बावजूद, श्री प्रकाश ने अतिरिक्त 37,000 वोट हासिल कर गिनती 251,000 पहुंचा दी। हालांकि श्री प्रकाश 2019 में इस सीट से हार गए, लेकिन उन्हें कुल 33.1 लाख वोट मिले, जो कि 62,000 वोट ज्यादा थे।

सपा का बढ़ा जनाधार

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एक बार कानपुर से समर्थन न मिलने पर मुलायम सिंह यादव ने नाराजगी जताई थी। दरअसल ओबीसी और मुस्लिम आबादी होने के बावजूद इस सीट पर कांग्रेस और बीजेपी का जनाधार मजबूत बना रहा। हालांकि 2022 के संसदीय चुनावों और 2023 के स्थानीय चुनावों परिवर्तन देखने को मिला। कांग्रेस की सीमित उपस्थति के साथ सपा को सबसे बड़े विपक्षी दल का तंग मिला। 2022 में सपा ने कानपुर शहर की आर्यनगर, सीसामऊ और कैंट विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की। ये तीनों सीटें नगर लोकसभा सीटों का हिस्सा हैं। 2023 के स्थानीय चुनावों में, सपा उम्मीदवार वंदना वाजपेई को 262,000 वोट मिले, जबकि कांग्रेस सांसद आशनी अवस्थी को सिर्फ 90,000 वोट मिले।

आसान नहीं लड़ाई 

कानपुर नगर की 10 विधानसभा सीट कानपुर नगर, अकबरपुर और मिश्रिख लोकसभा सीटों में बटी है। आर्यनगर, सीसामऊ , कैंट ,गोविंदनगर और किदवई नगर सीट नगर लोकसभा का हिस्सा है। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव यहां बड़ा रोड शो  किया था,  जिसके चलते आर्यनगर और सीसामऊ सीटें बीजेपी के पास से खिसक गई। बंपर पोलराइजेशन के दौर में  भाजपा का सबसे अधिक फोकस ब्राह्मण बहुल गोविंदनगर और किदवई नगर सीटों रहेगा। इसके अलावा बची तीन सीटों पर वैश्य, दलित और ओबीसी वोटर अहम होंगे। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी सेगठबंधन के चलते कानपुर सीट कांग्रेस के खाते में है। ऐसे मे अब ये देखना ये होगा कि क्या सपा मुस्लिम वोट कांग्रेस को ट्रांसफर करवाने से सफल हो पाती है या नहीं। वहीं बेहद कमजोर नेतृत्व के चलते कांग्रेस कहां तक पहुंच पाती है। फिलहाल इस सीट से अभी तक कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही प्रत्याशी का ऐलान नहीं किया है। इस सीट से बीएसपी उम्मीदवार कुलदीप भदौरिया होंगे। तमाम लहरों के बाद भी जातिगत संतुलन कानपुर सीट पर अनुमानित 16- 18% ब्राह्मण 14 – 15% मुस्लिम 6% छतरी 18 – 19% ,वैश्य,सिंधी और पंजाबी हैं। बचे करीब 35 – 40% मतदाता एससी और ओबीसी वर्ग से आते हैं।

स्थानीय मुद्दे

कानपुर में सैकड़ों हेक्टेयर औद्योगिक भूमि खलाई पड़ी है। कुछ महीने पहले पचौरी ने  36 महीने बाद लाल इमली के मजदूरों को मानदेय दिलाया था। इस इलाके की जनता चाहती हैं कि इन स्थानों का इस्तेमाल शहर के पार्कों, पार्किंग स्थलों और आवास परियोजनाओं के लिए किया जाए। साथ ही केडीए को लखनऊ की तर्ज पर एक नियोजित शहर के रूप में विकसित विकसित किया जाए। प्रदेश की जीएसडीपी में कानपुर का घटना हिस्सा भी बुद्धिजीवियों के बीच चर्चा का विषय है  836 करोड़ के खर्च के बावजूद शहर में पानी की गड़बड़ सप्लाई, मेन सिटी में मेट्रो के अलावा कोई बदलाव नहीं होना और बदहाल यातायात भी समस्या है।

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