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अमित शाह की बदौलत कामरेड कौशल किशोर का मोहनलालगंज सीट पर जीत का सिलसिला जारी रहेगा?
लखनऊ, मोहनलालगंज। 2014 में नरेंद्र मोदी के चेहरे के जरिए भाजपा जहां माहौल बनाने में जुटी थी। वहीं अमित शाह दूसरे दलों के जमीनी असर रखने वाले चेहरों को अपने पाले में करने में लगे थे। इसी कड़ी में भगवा सियासत को कामरेड कौशल किशोर भा गये। कम्युनिस्ट पार्टी में सियासत कर चुके कौशल व भाजपा की जुगलबंदी रंग लाई और 18 साल बाद मोहनलालगंज में फिर से कमल खिल गया। 2012 में यहां की पांचों विधानसभा सीट हारने वाली भाजपा ने 2017 में मलिहाबाद, बीकेटी, सरोजिनी नगर पर भी कब्जा जमा लिया। वोटों के विभाजन का यही गणित विपक्ष को समझ में आया और 2019 में बंटवारा रोकने के लिए सपा-बसपा एक हो गए। संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर आरके चौधरी ने कौशल किशोर के सामने ताल ठोकी, लेकिन मोहनलालगंज का मन नहीं बदला और कौशल किशोर 90000 से अधिक वोटों से जीत गए और भाजपा सिधौली छोड़कर सभी चार विधानसभा क्षेत्र में आगे रही।
लगातार जीत के बाद कौशल किशोर को केंद्रीय मंत्री बनाकर इनाम दिया गया। इसके बाद से क्षेत्र में उन्होंने अपनी जमीनी सक्रियता और बढाई है यहां की सभी पांच विधानसभा सीट भाजपा के खाते में है। सामाजिक समीकरण देखें तो यहां लगभग 6 लाख दलित वोटर हैं। इनमें भी 4 लाख पासी हैं, जिस बिरादरी से कौशल किशोर आते हैं। करीब 2 लाख ब्राह्मण, पौने दो लाख ठाकुर, इतने ही लोधी मौर्य जैसी अति पिछड़ी जातियों के वोटर हैं, जिनमें भाजपा खुद को सहज पाती है। बीकेटी व सरोजनी नगर का एक बड़ा हिस्सा शहरी आबादी का है। जाति गणित के इधर योजनाओं के जमीनी अमल से लाभार्थी वोट बैंक का भी विस्तार हुआ है। हालांकि अपेक्षाओं और अपेक्षाओं के नाराजगी का भी संकट बना हुआ है। सपा के आर के चौधरी की भी मोहनलालगंज में जमीनी पकड़ है। 2009 में उन्होंने अपनी पार्टी से लड़कर 144000 वोट हासिल किए थे। यहां 2लाख 50 हजार यादव और लगभग डेढ़ लाख के करीब मुस्लिम वोटर हैं, जो सपा का वोट बैंक माने जाते हैं। इन समीकरणों के जरिए सपा एक बार फिर साइकिल दौड़ाने की उम्मीद लगाये हैं। वहीं पिछले चार चुनाव में लगातार दूसरे नंबर पर रही बसपा की दावेदारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता। हालांकि अब तक पार्टी यहां चेहरा नहीं तय कर पायी है।
मोहनलालगंज की जमीन क्रांति का इतिहास भी समेटे है और आम के खास स्वाद का भी, वर्तमान भी बगल की लखनऊ सीट को इसने पीएम चुनते देखा है लेकिन फैसला करने का इसका अपना अलग ही अंदाज रहा है। यह यूपी की उन चुनिंदा सीटों में है जिसे यहां हुए 15 चुनाव में आठ बार आधी आबादी को संसद भेजा है। यहां के मतदाताओं ने जिसको दिल में बसाया उसका लंबा साथ दिया है। यहां काबिज भाजपा ने अब की सियासी रण में मौजूदा सांसद कौशल किशोर को ही हैट्रिक लगाने की जिम्मेदारी सौंपी है। वहीं सपा कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर आर के चौधरी मैदान में हैं जिनकी कई दलों से लड़ने के बाद भी सांसद बनने की हसरत अभी पूरी नहीं हो पाई है। लखनऊ जिले की चार विधानसभा सीट बक्शी का तालाब मोहनलालगंज मलिहाबाद और सरोजिनी नगर व सीतापुर की सिधौली सीट मोहनलालगंज लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। एससी के लिए आरक्षित इस लोकसभा सीट की तीन विधानसभा सीट भी सुरक्षित हैं। यह सीट 1962 में अस्तित्व में आई। पहले चुनाव में इसने भी पड़ोसी लखनऊ से ताल से ताल मिलाई और कांग्रेस के प्रत्याशी गंगा देवी को संसद भेजा। लखनऊ ने भी पहले चुनाव में आधी आबादी को ही प्रतिनिधित्व दिया था।
जीत की हैट्रिक लगाने वाली गंगा देवी व कांग्रेस का विजय रथ 1977 में जनता पार्टी के रामलाल कुरील ने रोका। हालांकि कांग्रेस की 80 में फिर वापसी हुई और जीत का सिलसिला 84 तक चला। यूपी की अधिकतर लोकसभा सीट की तरह यहां भी इसके बाद कांग्रेस का खाता नहीं खुला। 90 में जनता दल के एसपी सरोज ने कांग्रेस की राह बंद कर दी तो फिर खुल नहीं सकी। 90 के दशक में सियासत ने करवट बदली धर्म और जाति चुनाव का केंद्रीय मुद्दा हो गया। 1991 में भाजपा राम लहर पर सवार थी। इसी बीच लखनऊ से भाजपा के सबसे बड़े चेहरे अटल बिहारी वाजपेई ने पर्चा भरा। बगल में अटल आए तो मोहनलालगंज में भी पहली बार कमल खिल गया। भाजपा के छोटेलाल 10000 वोटों से चुनाव जीत गए। 96 में पूर्णिमा वर्मा ने भाजपा की जीत को कायम रखा। हालांकि यहीं से मोहनलालगंज ने राह बदल ली। 98 में जब लखनऊ अटल बिहारी वाजपेई के रूप में देश का पीएम चुन रहा था, तब पड़ोस ने विपक्ष चुना पहली बार इस सीट पर सपा का खाता खुला और रीना चौधरी संसद पहुंची। यहां का जातिगत गणित सपा के लिए ऐसा मुफीद बैठा कि अगले काफी चुनाव तक साइकिल ही दौड़ी। दो बार रीना चौधरी उनके बाद जयप्रकाश रावत और फिर सुशील सुशील सरोज के लिए सपा के टिकट पर संसद के दरवाजे खुले।
बसपा के लिये बंजर साबित हुई मोहनलालगंज लोकसभा …
जब भी आरक्षित सीटों की बात होती है तो दलित वोट बैंक मुखर होने लगता है। स्वाभाविक तौर पर यहां बसपा की जमीन लगती है लेकिन मोहनलालगंज की सियासी जमीन बसपा के लिए बंजर हो रही है। पिछले तीन दशक में हर चुनाव में उतरी बसपा एकाद बार जीत के करीब तो पहुंची लेकिन फिसल गई 89 में बसपा पहली बार चुनाव में उतरी तो उसने 8% वोट मिले 96 आते-आते उसने अपनी स्थिति बेहतर की और 27% वोटों के साथ तीसरे नंबर पर पहुंचे। 2004 में सपा से कांटे की लड़ाई में 2568 वोटों से बसपा जीत से दूर रह गई। यह इस सीट पर सबसे नजदीकी लड़ाई थी। 2009, 2014 और 2019 में भी बसपा को दूसरे नंबर से ही संतोष करना पड़ा था।
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