उत्तर प्रदेश का रायबरेली जिला कई मायनों में राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। जिले की सरकारी वेबसाइट बताती है कि रायबरेली की स्थापना भरो ने की थी, इसलिए इसे पहले भरौली या बरौली कहा जाता था और बाद में बरेली बन गया। बरेली के आगे लगे राय का रिश्ता कायस्थों से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि कायस्थों ने कुछ समय तक यहां शासन किया था। हालांकि राजनीति में थोड़ी भी रुचि रखने वाला हर शख्स इस क्षेत्र को जानता है क्योंकि यह गांधी परिवार यानी कांग्रेस का गढ़ है। 2014 और 2019 की मोदी लहर के दौरान भी यूपी का यह लोकसभा क्षेत्र कमजोर नहीं हुआ। 2019 में, राहुल गांधी पड़ोसी लोकसभा क्षेत्र अमेठी से हार गए थे, लेकिन उनकी मां सोनिया गांधी रायबरेली से जीत हासिल करने में सफल रहीं। वहीं इस बार सोनिया गांधी के राज्यसभा चले जाने से यहां का समीकरण बदला हुआ नजर आ रहा है।
17 बार जीती है कांग्रेस
उपचुनावों को मिलाकर अब तक रायबरेली में कुल 20 संसदीय चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से 17 बार कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया है तो वहीं एक बार जनता पार्टी और दो बार भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की है। 1990 के दशक में सपा भी इस सीट से दो बार लड़ाई में आई, लेकिन वह जीत का स्वाद नहीं चख सकी और 2009 से उसने गांधी परिवार के खिलाफ इस सीट से उम्मीदवार उतारना बंद कर दिया। बसपा यहां से अपना प्रत्याशी जरूर खड़ा करती है। 2009 में वह दूसरे स्थान पर थी लेकिन आज तक उसे जीत हासिल नहीं हुई। आजादी के बाद हुए पहले चुनाव में यह सीट रायबरेली-प्रतापगढ़ के नाम से जानी जाती थी और यहां से नेहरू के दामाद व इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी ने पर्चा भरा था।
इंदिरा गांधी ने लड़ा चुनाव
वहीं इंदिरा गांधी भी कांग्रेस के कार्यों में हाथ बंटाने लगी थीं और पति के समर्थन में चुनाव प्रचार करने रायबरेली आईं। फ़िरोज़ गांधी ने इस सीट को आसानी से जीत लिया। इसके बाद वह लगातार दो बार और चुनाव जीते और हैट्रिक लगाई। 1960 में उनकी जीत के बाद उनका निधन हो गया तो उपचुनाव हुआ और उनके स्थान पर आरपी सिंह ने चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा प्रधानमंत्री बनीं तो चुनाव मैदान में उनका उतरना लाजिमी था। इसके बाद 1967 में जब चुनाव हुआ तो इस सीट से इंदिरा गांधी मैदान में उतरी और जीत हासिल की। इंदिरा गांधी ने देश की राजनीति और विश्व कूटनीति में जबरदस्त सफलता हासिल की लेकिन इसी सफलता के बीच उन्होंने एक ऐसी गलती कर दी जो भारत के लोकतंत्र पर काला धब्बा साबित हुई।
राज नारायण ने लगाई सेंध
इंदिरा गांधी ने 1975 में देश भर इमरजेंसी लगा दी। इसके बाद जब 1977 का चुनाव हुआ तो जेपी के नेतृत्व में “इंदिरा हटाओ” का नारा पूरे देश में गूंजा। इस नारे ने कांग्रेस के लिए 25 वर्षों तक अभेद्य रहे रायबरेली में भी सेंध लगा दी। इंदिरा गांधी को कोर्ट में हराने वाले राजनारायण ने इस सीट से चुनावी जंग भी जीत ली। बता दें कि इससे पहले 1971 में राजनारायण इस सीट से हार चुके थे। 1980 में इंदिरा गांधी को एक बार फिर से रायबरेली की जनता का प्यार मिला और वे संसद पहुंचीं, लेकिन उन्होंने रायबरेली के बजाय आंध्र प्रदेश के मेडक का प्रतिनिधित्व करना चुना। पहले उपचुनाव और फिर 1984 के आम चुनाव में अरुण नेहरू ने उनकी विरासत संभाली। 1989 और 1991 में इंदिरा की मामी शीला कौल ने कांग्रेस के टिकट पर रायबरेली का प्रतिनिधित्व किया।
शीला कौल के बेटे की जब्त हुई जमानत
1990 का दशक कांग्रेस के लिए बुरे दिनों का प्रतीक बन गया। 1991 के चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद गांधी परिवार ने राजनीति से दूरी बना ली। दरअसल, राहुल और प्रियंका छोटे थे और सोनिया गांधी राजनीति में आना नहीं चाहती थीं, जिससे रायबरली की जनता कांग्रेस से नाराज हो गई। 1996 के चुनाव में कांग्रेस ने शीला कौल के बेटे विक्रम कौल को उम्मीदवार बनाया, लेकिन वह चुनाव हार गए। इस सीट से बीजेपी के अशोक सिंह ने जीत दर्ज की। वहीं जनता दल के अशोक सिंह दूसरे और बसपा तीसरे स्थान पर रहे। काफी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस सोनिया गांधी को राजनीति में लाने में सफल रही। वे 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं और फिर 1999 के चुनाव में अमेठी से चुनाव लड़ीं। इसका असर पड़ोसी जिले रायबरेली पर भी पड़ा और कांग्रेस के टिकट से इस सीट से चुनाव मैदान में उतरे कैप्टन सतीश शर्मा भी चुनाव जीत गए। 2004 से सोनिया ने खुद रायबरेली से चुनाव लड़ने का फैसला लिया। रायबरेली की जनता ने हमेशा सोनिया गांधी को सिर आंखों पर बैठाया। उन्हें इस सीट से एकतरफा अंतर से जीत मिली है। हालांकि 2006 में मुनाफाखोरी के मामले में फंसने के चलते उन्हें संसद की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा था।
2024 में उम्मीदवार तय नहीं कर पा रही कांग्रेस
अब 2024 के आम चुनाव की घोषणा ही चुकी है लेकिन 70 साल में ऐसा पहली बार हो रहा है जब कांग्रेस इस सीट से अभी तक उम्मीदवार तय नहीं कर पाई है जो कांग्रेस के लिए संकट और विरोधियों के लिए संभावना की वजह बन रही है। एक-तिहाई दलित वोटरों वाली इस सीट पर गांधी परिवार के कद के आगे कभी कोई गणित नहीं चला। हालांकि, इस बार सोनिया गांधी चुनाव मैदान में नहीं है। कभी जिले में अपना प्रभाव रखने वाले कांग्रेसी रहे अखिलेश प्रताप सिंह की बेटी अदिति सिंह से लेकर पंचवटी परिवार के दिनेश प्रताप सिंह तक, सब अब भाजपा में हैं। अगर सोनिया गांधी चुनाव लड़ती तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन अब जब गांधी परिवार से इस सीट से कोई चुनाव मैदान में नहीं है तो कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ गई हैं।
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