राजनीति के धुरंधर किसी भी क्षेत्र में खुद को मजबूत करने के लिए सबसे पहले वहां की जनता की नब्ज टटोलते हैं, फिर वहां के लोगों के बीच दस्तक देते हैं और धीरे-धीरे अपने पांव जमाते हैं। इसके बाद जीत का जश्न मनाते हैं। रायबरेली में कांग्रेस और सपा की जुगलबंदी का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। सपा ने इस सीट से सांसद बनने का मोह त्याग कर कांग्रेस को समर्थन दिया, लेकिन यहां की विधानसभाओं में उसने जमकर पैठ बनाई और जीत का जश्न मनाती रही। ये भी कह सकते हैं कि कांग्रेस को वॉकओवर देना सपा की मजबूरी नहीं बल्कि मास्टर स्ट्रोक रहा।
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सपा ने यहां के विधानसभा क्षेत्र में जमाई पैठ
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2007 के विधानसभा चुनाव के बाद जुड़े नए अध्याय
कांग्रेस को मिला वॉकओवर का फायदा
उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। इस सीट से कुछ चुनावों को छोड़कर कर हमेशा गांधी परिवार का ही कोई न कोई सदस्य चुनाव मैदान में रहा है। वहीं इंदिरा गांधी के लिए ये सीट राजनीति की अद्भुत प्रयोगशाला रही। इंदिरा गांधी ने इसी सीट से ब्राह्मण, मुस्लिम व दलित (BMD ) फार्मूले की नींव रखी थी। उनका ये प्रयोग सफल रहा और धीरे-धीरे पूरे देश में कांग्रेस को नई दिशा मिल गई। इसके बाद सपा ने यहां पिछड़ों को सहेजना शुरू किया और इनके जरिये अपना वोट बैंक मजबूत करने में जुट गई। वहीं बसपा भी अपने कैडर वोटों को एकजुट करने के लिए तरह-तरह की जुगत भिड़ाने लगी।
कांग्रेस से दिया सपा को झटका
साल 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में जब पहली बार सोनिया गांधी इस सीट से चुनाव मैदान में उतरीं, तब सपा भी मैदान में आकर डट गई। हालांकि इस समय सपा रायबरेली में अपने आपको मजबूत करने में लगी हुई थी, लेकिन बसपा के कैडर वोटों की वजह से सपा को विधानसभा चुनावों में मुश्किल आ रही थी। इससे पहले 1993 से 2004 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 1993 में डलमऊ, 1996 में सरेनी और 2002 में बछरावां, सलोन और सरेनी में जीत हासिल की थी, लेकिन 2007 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने सरेनी, सलोन, बछरावां और संताव में जीत हासिल कर सपा के थिंक टैंक को झटका दे दिया।
सपा ने दिया वॉकओवर
2007 के चुनाव में सपा के वोट प्रतिशत में भी तेजी से गिरावट देखने को मिली, जिससे पार्टी रणनीतिकारों को रायबरेली में सियासी जमीन खिसकने का खतरा दिखाई देने लगा। इसके बाद 2009 में हुए आम चुनाव में सपा ने पहली बार पुरानी प्रतिद्वंदिता को किनारे पर भविष्य की रणनीति को मजबूत करने के लिए कांग्रेस को वॉकओवर दे दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस से सोनिया गांधी लगातार इस सीट से चुनाव जीतती रहीं। इस सीट की खास बात यह रही कि अगर सपा ने वॉकओवर न दिया होता तो 2009 में बसपा और 2019 में भाजपा प्रत्याशी से सोनिया गांधी को कड़ी टक्कर मिलती।
कांग्रेस के वोट प्रतिशत में आई गिरावट
दरअसल साल 2004 के बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 8 फीसदी की गिरावट आ गई थी। इसके बाद सपा के मैदान से हटने के बाद पार्टी का परंपरागत पिछड़ों का वोट कांग्रेस की तरफ चला गया, जिससे रायबरेली से सोनिया को लगातार जीत मिलती रही।

कांग्रेस नेता पंकज तिवारी बताते हैं कि समाजवादी पार्टी द्वारा रायबरेली लोकसभा सीट पर प्रत्याशी न उतारने का सीधा फायदा कांग्रेस को मिलता रहा और वह भाजपा व बसपा प्रत्याशी को आसानी से शिकस्त देती रही, फिर आया साल 2017 का दौर जब विधानसभा के लिए गठबंधन हुआ, लेकिन दोनों के प्रत्याशी उतारने से किसी भी दल को फायदा नहीं हो सका था। समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्ष वीरेंद्र यादव बताते हैं कि राजनीति में नफा-नुकसान होना एक अलग विषय है, लेकिन इस पर बात करना ठीक नहीं है। रायबरेली की राजनीतिक जमीन हमेशा से समाजवादी पार्टी के लिए मुफीद रही है और रही बात कांग्रेस प्रत्याशी को समर्थन देने की तो यह गठबंधन धर्म का पालन करना है।
मुलायम का मुख्य एजेंडे में शामिल रहे ये जिले
समाजवादी पार्टी के संस्थापक और तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव ने साल 1993 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली, उन्नाव, हरदोई, अमेठी, प्रतापगढ़ को अपने मुख्य एजेंडे में रखा था। उनका मुख्य लक्ष्य इन जिलों में वोट प्रतिशत को बढ़ाना था। सपा संस्थापक की कोशिश थी कि इन जिलों में पिछड़ों का वोटबैंक करीब 20 से 24 फ़ीसदी तक है। वहीं मुस्लिमों का वोटबैंक भी 6 से 10 फीसदी तक है। ऐसे में यहां का सियासी गणित का फार्मूला एकदम सटीक हो सकता है। इसके बाद से रायबरेली में सपा की सियासी धमक लगातार बरकरार रही।
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